[ भारतीय मंदिर निर्माण कला शैली ]
भारत के मंदिरों की विविधता अनोखी है। यंहा मंदिर विशाल इमारतों से लेकर छोटे आकार के रूप में देश के हर हिस्से में फैले हैं। भारतीय मंदिर निर्माण कला शैली ना केवल विश्वास और धर्म के जीवंत प्रतीक है बल्कि ये सदियों से भारतीय वास्तुकला और भवन निर्माण में हुए विकास की कहानी को भी दर्शाते हैं।

भारतीय स्थापत्य कला का विकास
ऐसा माना जाता है कि वैदिक काल में भारत में अधिकांश पूजा अग्नि पर आधारित थी इसके बाद सरल संरचनाए पत्थरों और लकड़ी से बनने लगी। इसके बाद गुफा मंदिरों का निर्माण किया जाने लगा जो अधिकतर पहाड़ी क्षेत्रों में मिलते हैं तो इस प्रकार इन साधारण संरचनाओं से जटिल और अनोखी भारतीय मंदिर निर्माण कला शैली वास्तुकला युक्त संरचनाओं का विकास हुआ।
इनसे हम समझ सकते हैं कि प्राकृतिक संसाधनों प्रौद्योगिकी के विकास अभियांत्रिकी और सौंदर्यशास्त्र में हमने कैसे महारत हासिल की लेकिन जैसे-जैसे समाज विकसित हुआ मंदिर शिक्षा, सामाजिक समारोह उत्सव और विवाह स्थल बन गए और आखिरकार यह मंदिर प्राचीन शहरों के केंद्र बन गए जहाँ इनके आसपास बाज़ार महल और सैन्य छावनियां बसने लगी।
मंदिर निर्माण कला शैली के प्रकार
वैदिक काल के बाद भारतीय मंदिर निर्माण कला शैली को मुख्यता दो शैलियों में बांटा जा सकता है-
- पहली – उत्तर भारतीय शैली या नागर शैली
- दूसरी – दक्षिण भारतीय शैली या द्रविड़ शैली
उतर भारती शैली या नागर शैली
नागर शैली के मंदिरों का निर्माण गुप्तकाल में 320 से 650 ईसा पूर्व के दौरान हुआ था। ऐसे मंदिर आम तौर पर उत्तर और मध्य भारत में मिलते हैं। इस शैली में सम्पूर्ण मंदिर का निर्माण एक विशाल चबूतरे पर किया जाता है। मंदिर के गर्भगृह का निर्माण सबसे ऊँचे शिखर के नीचे किया जाता है। इसका मुख्य उदाहरण है- खजुराहो के मंदिर
अयोध्या में बनने वाला भव्य राम मंदिर भी नागर शैली में ही बन रहा है| जिसका इंतजार भारत के साथ पुरे विश्व को है
दक्षिण भारतीय शैली या द्रविड़ शैली
दक्षिण भारतीय शैली के मंदिरों में पिरामिड संरचना होती है जिसे विमान कहा जाता है। मंदिर प्रांगण का मुख्य द्वार गोपुरम कहलता है। दक्षिण शैली या द्रविड़ शैली के मंदिरों की उत्पत्ति कांचीपुरम के पल्लव युग के दौरान 600 से 850 ईस्वी में और बाद में बादामी के चालुक्य और मदुरई के पांडिया शासनकाल में हुई थी। इसके उदाहरण है- तंजावुर का बृहदीश्वर मंदिर
वेसर शैली
इस शैली के मंदिरों की स्थापत्य कला नागर शैली और द्रविड़ शैली का मिश्रण है इनमें बौद्ध के मेहराबदार पूजा स्थलों का प्रभाव भी देखा जाता है इस शैली का विकास चालु के काल के उत्तरार्ध में हुआ था। इसके उदाहरण है- हम्पी के मंदिर
भारतीय मंदिरों की विशेषताऐ
भारतीय मंदिर मुखतः चार भागो में बटा होता है जो निम्न है –
- गर्भगृह– यहाँ मुख्य देवता की मूर्ति स्थापित होती है
- मंडप – यह चार खाम्हो पर टिका प्रवेश कक्ष होता है
- शिखर – मंदिर के शीर्ष भाग को शिखर या विमान कहते है
- वाहन– यह मंदिर के अधिष्टाता देवता की सवारी होती है
मंदिर निर्माण की शैलियाँ:-
तंजौर स्थित बृहदीश्वर मंदिर
तंजावुर का शानदार बृहदीश्वर मंदिर इस मंदिर की इमारत द्रविड़ या दक्षिणी भारतीय शैली की है इस भव्य मंदिर का निर्माण राजा चोल और उनकी बहन के द्वारा करवाया गया था। दोनों भाई बहन शिव भगवान के भक्त थे। इस मंदिर का शुभारंभ स्वयं राजा द्वारा 1019 ईस्वी में किया गया था। चोल राजा मंदिरों के निर्माण के लिए जाने जाते थे और उन्होंने अपने प्रभाव वाले मध्य तमिलनाडु के कावेरी डेल्टा क्षेत्र में लगभग 300 मंदिरों का निर्माण कराया था।

लेकिन चोल राजाओं ने स्मारक संकल्पना वास्तुकला की भव्यता और शक्तिशाली मूर्तिकला के प्रतीक के रूप में विशाल बृहदीश्वर मंदिर बनवाया था। इस मंदिर का निर्माण वास्तु शास्त्र पर आधारित हैं जिसे प्राचीन निर्माण विज्ञान माना जाता है। इसे वास्तुकला की द्रविड़ शैली में बनवाया गया था जिसके अंतर्गत सीढ़ीदार पिरामिट वाली संरचना का निर्माण किया गया था।
सबसे ऊँचा मंदिर
जब 1003 ईस्वी में बृजेश्वर मंदिर का निर्माण पूरा हुआ था उस समय यह भारत का सबसे ऊंचा मंदिर था। 1000 साल के बाद भी 65.84 उचाई के साथ यह मंदिर आज भी भारत का सबसे ऊंचा मंदिर है। पूरे भारत में 11 वीं सदी के दौरान व्यापक पैमाने पर मंदिरों का निर्माण कराया गया था, लेकिन बहुत ही कम मंदिर है जिनकी तुलना तंजावुर स्थित बृहदीश्वर मंदिर से की जा सकती है।
खजुराहो के मन्दिर
खजुराहो की अद्भुत मंदिर परिसर नागकर या उत्तरी भारतीय शैली में बने है। 13वीं शताब्दी के बाद लंबे समय तक खजुराहो मंदिर गुमनामी में रहे 19वीं सदी के मध्य में ब्रिटिश सेना के कैप्टन TS Brat ने इन्हें खोजा इसके बाद इन आश्चर्यजनक इस्मारको के पुनरुद्धार का काम आरंभ हो सका यहाँ तीन मंदिर समूह हैं जिनमें पश्चिमी समूह, पूर्वी समूह, और दक्षिणी समूह है।
नौवीं से ग्यारहवीं सदी तक खजुराहो चंदेल राजाओं की राजधानी था उनके राज्य का दायरा वर्तमान के मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ तक फैला था। लगभग 85 मंदिर थे जिनमें से वर्तमान में केवल 20 ही शेष हैं यह माना जाता है कि प्रत्येक चंदेल राजा ने अपने जीवनकाल में कम से कम एक मंदिर बनवाया था।
वास्तुकला की बौद्धिकता
खजुराहो अपनी कामुक मूर्तियों के लिए जाना जाता है लेकिन असल में इस परिसर में कामुक मूर्तियां केवल 2% ही है। उस समय की वास्तुकला की बौद्धिकता और समरूपता अनोखी रही होगी यहाँ ब्राह्मणवादी और जैन दोनों धर्मों के मंदिर है इन्हें पाण्डु गुलाबी और पीले रंगों के बलवा पत्थरों से निर्मित किया गया था चंदेल राजाओं ने इनका निर्माण हजारों मूर्तिकारों वास्तुकारों और राजगीरों की मदद से करवाया था इस परिसर की इमारतों का निर्माण नागर शैली में किया गया था
कंदरिया महादेव मंदिर

खजुराहो परिसर में इमारतों के अनेक समूह है इस परिसर के विशाल मंदिरों में से एक कंदरिया महादेव मंदिर है इस परिसर के अनेक मंदिरों की मुख्य विशेषता इनका मधुमक्खी आकार वाला केंद्रीय शिष्य जिसे शिखर कहते हैं जिसका शीर्षतम बिंदु मुख्य देवता के ऊपर स्थित होता है ऐसी ही शिखरों के कई स्तर हैं ये दोहराओ गणित का एक बहुत जटिल रूप है जिसे फैक्टर्स यानी आंशिक कहते हैं इसके आसपास छोटे सहायक शिखर होते हैं जिन्हें पुरुष रिंगा या मध्यवर्ती टॉवर कहा जाता है।
हम्पी का मन्दिर
तुंगभद्रा नदी के तट पर स्थित यह शहर विजयनगर साम्राज्य की राजधानी था। जिसके राजाओं ने 4 थी से 16 वीं सदी तक शासन किया इस शहर की धरोहर किले मंदिरों , तीर्थ स्थान होलू अस्तबलों और जल संरचनाओं के शेष बचे 1600 अवशेष है।
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ग्रेनाइट पत्थरों का उपयोग
ये एक विशेष उदाहरण है किस प्रकार एक मंदिर शहर का केंद्रीय बिंदु था जिसके आसपास जल स्रोत ,बाजार और बस्तियां बसी थी। लाखों पत्थरों ने हम्पी के भूगोल को आकार दिया है यहाँ तक कि आज भी इस स्थान पर पत्थरों का उत्खनन देखा जा सकता है यहाँ पर मुख्य पत्थर ग्रेनाइट है सामान्यता मंदिरों में उपयोग होने वाले पत्थरों की तुलना में यह अधिक कठोर पत्थर है लेकिन इस पत्थर की भरमार होने के कारण ये एक किफायती विकल्प था इस मंदिर के निचले हिस्से को ग्रेनाइट पत्थरों से बनाया गया है जबकि ऊपरी हिस्से के लिए टेराकोटा का उपयोग किया गया था
चलिए हम भी इन संरचनाओं को थोड़ा विस्तार से समझने की कोशिश करते हैं:-
मंदिर परिसर में आयताकार बाड़ी के अंदर प्रतेक दीवार के मध्य में गोपुरम की श्रंखला है और आयत के मध्य में सबसे महत्वपूर्ण मंदिर है इस स्थान पर बड़े और छोटे मंदिर है यहाँ के मुख्य मंदिरों में वीरूपक्ष, कृष्णा, अच्युतराय और विथल मंदिर है अलग- अलग समारोह के लिए एक मंडप भी है ये सभी चारदीवारी से घिरे हैं इनके प्रवेश द्वार को गोपुर कहते है। गोपुर के सामने 500 से 1000 मीटर तक मंडपों से गिरा एक लंबा रास्ता दिखाई देता है और इसकी दाईं तरफ एक तालाब है इस रास्ते का बाजार और दुकानों के रूप में उपयोग होता था बाजार की गलियां 32 मीटर चौड़ी और लगभग 728 मीटर लंबी थी ये वीरुपक्ष मंदिर से लेकर मतंग पहाड़ी तक फैली थी इन पर शानदार घर और सुंदर मंडप निर्मित थे।
वीरुपक्ष मंदिर का निर्माण
बाजार के पश्चिमी सिरे पर स्थित भव्य वीरुपक्ष मंदिर सबसे पुराना मंदिर है और ऐसा माना जाता है कि इसका निर्माण 15 वीं सदी में किया गया था। इस पर 50 मीटर ऊंचे गोपुरम का प्रभुत्व था इस क्षेत्र के मंदिरों की विशेषताओ में विशाल और सुंदर शिखर और सजावटी स्तंभों से संपन्न प्रवेश द्वार शामिल हैं
सामाजिक केंद्र
पत्थर के रथ के रूप में गरुड़ मंदिर उत्कृष्ट कला का एक अच्छा नमूना है नर सिंह गणेश और वीरभद्र की विशाल मूर्तियां भी यहाँ पर देखी जा सकती है हम याद कर सकते हैं कि किस प्रकार यह मंदिर प्राचीन समय में सामाजिक केंद्र थे जहाँ लोग एकत्र होते थे ये ऐसे स्थान थे जहाँ पर नृत्य संगीत और विभिन्न कलाओं को सम्मानित किया जाता था और इन्हें अगली पीढ़ियों तक पहुंचाया जाता था लेकिन आज ये मंदिर केवल इतिहास होकर रह गए हैं जो हमें उस समय के कारीगरों की उत्कृष्ट वास्तुकला की याद दिलाते हैं
कैलाशनाथ मन्दिर
कैलाश मंदिर की विशेषता क्या है?

विश्व विरासत स्थल एलोरा जो डेकन ट्रैक पर है यहाँ बनी आश्चर्यजनक संरचनाओं में से एक है कैलाशनाथ मंदिर है। इसे 8वीं सदी में बनाया गया था। इसे बनने में 100 साल लगे। इसे एक ही चट्टान को काटकर बनाया गया था पूरे एलोरा में पत्थरों पर लोहे की छड़ों के निशान देखे जा सकते हैं। ये 30 मीटर ऊंचा 45 मीटर चौड़ा और 85 मीटर गहरा है जो ऐंठन के पार्थेनॉन से लगभग दुगनी जगह में बना है।
इस मंदिर को तीनों तरफ से पहाड़ियों से घिरी एक विशाल चट्टान को तीन विशाल खाइयों को तराशकर बनाया गया। मंदिर की बाहरी दीवार काफी चौड़ी है और इसमें लंबवत अन्य कक्ष बने हैं जिन पर नृत्य करते शिव और गरुड़ पर सवार विष्णु की मूर्तियां बनी हैं।
जटिल स्थापत्य कला
कैलाश मंदिर की स्थापत्य कला की जटिलता को समझने के लिए इसकी वास्तुकला को समझना बहुत जरूरी है। इसके साथ ही शिल्पियों द्वारा बारीकी से किया गया काम भी सराहनीय है दिलचस्प बात यह है कि यहाँ उपयोग होने वाली वास्तुकला की विशेषताओ और निर्माण की तकनीकों को आज भी हम आधुनिक इमारतों में देख सकते हैं मंदिर के मुख्य प्रांगण में 16 स्तंभों वाला मंडप या हॉल है एक नंदी मंडप है और एक गौपुर है जिसे मंदिर के शीर्ष पर बनाया गया है।
ये सभी एक ही चट्टान से निर्मित पुलों से जुड़े हैं इस एकल चट्टान में कहीं एक भी जोड़ नहीं है पुल के दोनों ओर स्थित सीढ़ियां मुख्य मंदिर को मंडप से जोड़ती है सीढ़ियों की उत्तरी दीवार पर महाभारत काल की कहानियाँ उकेरी गई है दक्षिण दिशा में रामायण के दृश्यों को देखा जा सकता है बरामदे के दक्षिणी तरफ एक तीन मंजिला गुफा है इसकी संरचना में बालकनी और सीढ़ियां हैं ये मूर्तियां जीवन दर्शन को व्यक्त करती हैं और इनमें जीवन की तृष्णा को समझाया गया है।
विश्व की सबसे बड़ी कैंटीलीवर पत्थरों की छत
इस मंदिर में विश्व की सबसे बड़ी कैंटीलीवर पत्थरों की छत है इस मंदिर के बाहरी हिस्से में चट्टानों पर उकेरी गई सैकड़ों मूर्तियां हैं शुरुआत में पूरे मंदिर पर सफेद प्लास्टर था ऐसे प्लास्टर से ये बर्फ़ से ढके रहने वाले कैलाश पर्वत के समान दिखाई देता था एलोरा की गुफाओ में वैसे ही कई सुंदर चित्र भी है जैसे कि अजंता की गुफाओं में है भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को एक ही गुफा में एक से अधिक परतों वाली चित्र भी मिले हैं कैलाश मंदिर की योजना वास्तुकला और निर्माण वास्तव में मानवीय प्रतिभा की महत्वपूर्ण उपलब्धि है
सूर्य मंदिर कोणार्क (उड़ीसा)
इस मंदिर का निर्माण 1250 ईस्वी में राजा नरसिंहदेव ने करवाया था। मंदिर की बनावट बहुत ही विशेष है पूरे मंदिर को सूर्य भगवान के रथ के रूप में निर्मित किया गया है जिसमें 24 पहिये है प्रत्येक पहिया का व्यास 10 फिट है इन पहियों की तीलीओ पर विस्तृत नक्काशी की गई है। प्रत्येक पहिया एक पखवाड़े का प्रतीक है मंदिर को सात घोड़े खींच रहे हैं दो पहरेदार शेर हाथियों पर हमला करते हुए द्वार पर स्थित है

आरंभ में इस मंदिर को तीन हिस्सों में बनाया गया था
- 1.विशाल सर्किल आकार दोहरे शीर्ष वाला गर्भगृह है
- 2.पिरामिड जैसी छत वाला जगमोहन
- 3.एक नाट्यमंडप इसके तीन मुख्य हिस्से हैं
आज इस मंदिर के शिकार लुप्त हो चूके हैं त्रुटि रहित अनुपाद और प्रभावशाली आयाम के साथ जगमोहन और नाट्य मंडल अभी भी बचे हुए हैं ये उस समय के वैज्ञानिक और वास्तुकला के विकास का प्रमाण है ये मंदिर कालचक्र का प्रतीक है जो सूर्य देवता के प्रतीक से हमे जोड़ता है सात घोड़े जो सूर्य मंदिर को सुबह की ओर पूर्वी दिशा से खींचते हैं ये सप्ताह के सात दिनों के प्रतीक हैं रथ के 12 पहिए साल के 12 महीनों को दर्शाते हैं दूसरी दिलचस्प बात यह है कि यह साधारण पहिए नहीं बल्कि सूर्यघड़ी भी है कोई भी केवल पहियों की छाया को देखकर सही समय का अंदाजा लगा सकता है – भारतीय मंदिर निर्माण कला शैली
कोणार्क का सूर्य घड़ी कैसे काम करता है?
आइये अब इस तकनीक को विस्तार से समझते हैं- सूर्यघड़ी के प्रत्येक पहिये में आठ तीलिया है जिनमें 24 घंटों को आठ बराबर भागों में बांटा गया है जिसके अनुसार दो तिलियो के बीच का अंतराल 3 घंटे का है इस प्रकार कुल आठ लघु तिलिया है प्रत्येक तिली 90 मिनट को दर्शाती है पहियों के किनारों को छोटे मार्गों से चिन्हित किया गया है बड़ी और छोटी पीढ़ियों के बीच 30 मनके है अगर 90 मिनट को 30 से विभाजित करते हैं तो हमें प्रत्येक मनके का मान मिलता है 3 मिनट ये मनके काफी पड़े हैं जिससे मनके के मध्य में या फिर मनके के किनारों पर पड़ने वाली छाया को देखा जा सकता है इससे हम आगे भी इस समय को सटीकता से मांग सकते हैं
मंदिर निर्माण में उपयोग किये गाये विभिन्न पत्थर
इस मंदिर को 1200 कारीगरों ने 12 सालों में बनाया साक्षियों से पता चलता है कि तीन विभिन्न प्रकार के पत्थरों का उपयोग इस मंदिर के निर्माण में हुआ है
कौनडेलाइट:-
यह एक तरह की रूपांतरित चट्टानें हैं जिन्हें मंदिर के बड़े भाग में उपयोग किया गया था
क्लोराइड:-
इसका उपयोग दरवाजों और कुछ मूर्तियों में किया गया था
लेटराइट:-
इसका उपयोग मंदिर के अंदरूनी हिस्सों मींव सीढ़ियों और मंच के केंद्र में किया गया था
पत्थरों को सुचारू रूप से एक दूसरे के ऊपर क्षितिज रखा गया है और इन्हें आपस में लोहे की क्राइम्स और गिट्टियों से जोड़ा गया है करी गरी इतनी बेहतरीन की गई है कि यह जोड़ आसानी से दिखाई नहीं देते जोड़ लगने के बाद ही इन पर डिजाइन उकेरा गया था इस मंदिर की एक और खासियत है प्रत्येक दो पत्थरों के बीच लोहे की एक प्लेट लगाई गई है मंदिर की ऊंची मंजिलओ के निर्माण के लिए लोहे के भारी बीमओ का उपयोग किया गया था
कैसे नष्ट हुई मंदिर
मंदिर के ढहने की कई धारणाएं प्रचलित हैं एक धारणा के अनुसार कोणार्क मंदिर इसलिए गिरा क्योंकि यह पूर्ण नहीं था इसके अलावा वास्तुकला दोषियों को भी इसके लिए जिम्मेदार माना जाता है लेकिन मंदिर का जितना हिस्सा बचा है वो भारत की बेहतरीन स्थापत्य कला का उदाहरण है
FAQS:-
- भारत में मंदिर निर्माण की कितनी शैलियां हैं?
उतर – नागर शैली और द्रविड़ शैली - विश्व की सबसे बड़ी कैंटीलीवर पत्थरों की छत कहा है?
उतर – एलोरा (महाराष्ट्र) - भारत का सबसे ऊँचा मंदिर
उतर – बृहदीश्वर मंदिर ( ऊंचाई 65.84 ) - मध्यकाल में मंदिर निर्माण की कितनी शैलियां मौजूद थी
उतर – 2 - कंदरिया महादेव मंदिर का निर्माण किसने करवाया?
उतर – राजा विद्याधर चंदेल
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