***Hindi Sahitya Ka Itihas***
हिंदी साहित्य के इतिहास का अध्ययन विभिन्न काल की परिस्थितियों और प्रवृत्तियों के आधार पर किया जाता है इसलिए काल विभाजन प्रक्रिया द्वारा प्रत्येक काल की सीमा का निर्धारण इस विधि द्वरा किया जाता है।

हिंदी साहित्य के आरम्भ काल को स्थिर करने की समस्या सदा से रही है। काल-सीमा निर्धारण के विषय मे विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। जार्ज ग्रियर्सन , मिश्रबंधु , रामकुमार वर्मा आदि इतिहासकार अपभ्रंश भाषा के उत्तरवर्ती रूप को हिंदी का आदि रूप मानकर उसकी शुरुआत संवत 700 से मानते है जार्ज गिर्यसन ने हिंदी साहित्य का क्षेत्र भाषा की दृष्टि से निर्धारित किया जिसमे यह स्पष्ट किया गया कि हिंदी साहित्य में संस्कृत प्राकृत अरबी, फारसी मिश्रित उर्दू को समाहित किया जा सकता है।
साहित्य का इतिहास
प्रत्येक देश का साहित्य वंहा की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं वित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है|
जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है। कारण स्वरूप इन परिस्थितियों का किंचित दिग्दर्शन भी साथ ही साथ आवश्यक होता है इस दृष्टि से हिंदी साहित्य का विवेचन करने में यह बात ध्यान में रखनी होगी कि किसी विशेष समय में लोगों में रुचिविशेष का संचार किधर से और किस प्रकार हुआ ?
हिंदी साहित्य के काल को कितने भागों में बांटा गया है?
हिंदी साहित्य का इतिहास -hindi-sahitya-ka-itihas
उपलब्ध जानकारी के अनुसार 900 वर्षों के हिंदी साहित्य के इतिहास को चार कालों में विभक्त किया जा सकता है-
- आदिकाल ( वीरगाथाकाल संवत् 1050-1375)
- मध्यकाल (भक्तिकाल संवत् 1375-1700)
- उत्तरमध्य काल ( रीतिकाल संवत् 1700-1900)
- आधुनिक काल (गद्य काल संवत् 1900-1904)
आदिकाल (वीरगाथाकाल संवत् 1050-1375) –
आदिकाल को हिंदी साहित्य के अन्य इतिहासकारों ने कई और नाम दिए हैं, जिनमें मुख्य रूप से डॉ० रामकुमार वर्मा ने इस काल को संधि काल नाम से अभिहित किया है। सिद्ध सामंत काल कहते हुए राहुल सांस्कृत्यायन यह मानते है कि सिद्ध काव्य हिंदी का काव्य ही है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जब इस काल का नामकरण किया था. उस समय इस काल की अनेक रचनाएँ और ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध थी जिन बारह रचनाओं को शुक्ल जी ने नामकरण का आधार बनाया, उनमें से कुछ संदिग्ध है तथा कुछ परवर्ती रचनाएँ हैं।
इन रचनाओं के आधार पर इस काल की साहित्यिक प्रवृत्तियों की रूप रेखा स्पष्ट नहीं है। चंद्रधर शर्मा गुलेरी और डॉ० धीरेन्द्र वर्मा इस काल को अपभ्रंश काल कहते हैं। उनके द्वारा रखा गया यह नाम भाषा की प्रधानता पर आधारित है जबकि साहित्य के किसी काल का नामकरण उस काल की विशेष साहित्यिक प्रवृत्तियों या वर्णित प्रतिपाद्य विषय के आधार पर होना चाहिए। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इस काल को आदिकाल कहना उचित समझते हैं।
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इस काल को बीजवपन काल के नाम से पुकारा है। कुछ विद्वानों ने इस काल को प्रारंभिक काल आविर्भाव काल भी कहा है। ये नाम वास्तव में आदिकाल नाम में ही समाहित हो जाते हैं। अतः इस कालखंड के समय को आदिकाल के नाम से जाना जाता है।
आदिकालीन साहित्य की प्रवृत्तियाँ
ग्यारहवीं सदी में लगभग देशभाषा हिंदी का रूप अधिक स्फुट होने लगा। उस समय पश्चिमी हिंदी प्रदेश में अनेक छोटे छोटे राजपूत राज्य स्थापित हो गए थे ये परस्पर अथवा विदेशी आक्रमणकारियों से प्राय युद्धरत रहा करते थे। इन्हीं राजाओं के संरक्षण में रहनेवाले चारणों और भाटों का राजप्रशस्तिमूलक काव्य वीरगाथा के नाम से अभिहित किया गया। इन वीरगाथाओं को रासो कहा जाता है। इनमें आश्रयदाता राजाओं के शौर्य पराक्रम का ओजस्वी वर्णन करने के साथ ही उनके प्रेम प्रसंगों का भी उल्लेख है। रासो ग्रन्थों में संघर्ष का कारण प्रायः प्रेम दिखाया गया है। इन रचनाओं में इतिहास और कल्पना का मिश्रण है।
रासो वीरगीत(बीसलदेवरासो और आल्हा आदि) और प्रबंधकाव्य (पृथ्वीराज रासो खुमाणरासो आदि)- इन दो रूपों में लिखे गए। इन रासो ग्रन्थों में से अनेक को उपलब्ध प्रतियाँ चाहे एतिहासिक दृष्टि से संदिग्ध हो पर इन बीरगाथाओं की मौखिक परंपरा असदिग्ध है। इनमें शौर्य और प्रेम की ओजस्वी और सरस अभिव्यक्ति हुई है।
(हिंदी साहित्य का इतिहास -hindi-sahitya-ka-itihas)अमीर खुसरों का भी यही समय है। इन्होंने ठेठ खड़ी बोली में अनेक पहेलियों, मुकरियाँ रचे हैं इनके गीतों, दोहों,की भाषा ब्रजभाषा है।
इसके आलावा आदिकाल में अन्य प्रमुख साहित्य धाराएं रही है –
- जैन साहित्य
- सिद्ध साहित्य
- नाथ साहित्य
- लोक साहित्य
भक्तिकाल (1300 से 1643 ई.)
अन्य युगों की तरह भक्ति-काल में भी भक्ति-काव्य के साथ-साथ अन्य प्रकार की रचनाएँ होती रही| जिसमे प्रधानता भक्तिपरक रचनाओं का ही रहा । इसलिए भक्ति की प्रधानता के कारण चौदहवीं शती के मध्य से लेकर सत्रहवीं शती के मध्य तक के काल को भक्तिकाल कहना सर्वथा युक्तियुक्त है। भक्तिकाल को स्वर्ण काल भी कहा जाता है |
भारतीय इतिहास का मध्यकाल कई मायना से महत्वपूर्ण परिवर्तनों का काल रहा है यह परिवर्तन न कंपल राजनीति बल्कि समार, संस्कृति, कला और साहित्य इत्यादि के क्षेत्र में भी असरकारी रहा। इस काल अवधि को युग परिवर्तक कहा जाता है वह यही समय है मुगल सल्तनत भारत में स्थापित हो गया और इस्लाम के आने और फैलने के साथ-साथ हिन्दू-मुस्लिम जनता के बीच आपसी सौहार्द, सद्भाव, सामाजिक और सांस्कृतिक संपर्क भी बढ़ा इसी समय समाज के हाशिये से उठकर संत कवि मुख्य धारा में अपनी वाणियों के साथ आये, जो ऊँच-नीच और जाति-पाति के भेद का विरोधर करते थे। उन्होंने धार्मिक कट्टरवाद का भी खुलकर विरोध किया। (हिंदी साहित्य का इतिहास -hindi-sahitya-ka-itihas)
सामाजिक तौर पर इतने बड़े पैमाने पर बदलाव के आने के पीछे एक बढ़ी वैचारिक पृष्ठभूमि का होना स्वाभाविक था क्योंकि सामाजिक तौर पर ऐसा प्रखर स्वर किसी एक दिन के विचार प्रक्रिया की उपज नहीं हो सकती. न ही आम जनता के लिए शंकराचार्य का ज्ञान मार्ग और अद्वैतवाद बहुत सहज और सरल रह गया था। भक्ति आन्दोलन सामाजिक जड़ता से निकलने की बेचोनी से उपजा आन्दोलन था, जो अपने सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों से उपजा लोक का आमजन का अपना आन्दोलन था. इसीलिए मध्य काल का यह आदोलन अपने मूल रूप में एक धार्मिक सांस्कृतिक आंदोलन है।
भक्ति आंदोलन ने देश के अलग अलग भागों में अलग अलग मात्राओं में तीव्रता और वेग ग्रहण किया यह आदोलन विभिन्न रूपों में प्रकट हुआ | किन्तु कुछ मूलभूत सिद्धांत ऐसे भी थे जो पूरे आन्दोलन पर लागू होते थे।
भक्ति आन्दोलन के प्रमुख सिद्धांत
- पहला- धार्मिक विचारों के बावजूद जनता की एकता को स्वीकार करना
- दूसरा- ईश्वर के समक्ष सबकी समानता
- तीसरा- जाति प्रथा का विरोध
- चौथा- यह विश्वास कि मनुष्य और ईश्वर के बीच तादात्म्य प्रत्येक मनुष्य के सदगुणों पर निर्भर करता है न कि उसकी ऊँची जाति अथवा धन-सम्पति पर|
- पांचवा- इस विचार पर जोर कि भक्ति ही आराधना का उच्चतम स्वरूप है और अंत में कर्मकाळा, मूर्तिपूजा, तीर्थाटना और अपने को दी जाने वाली यंत्रणाओं की निंदा|भक्ति आन्दोलन मनुष्य की सत्ता को सर्वश्रेष्ठ मानता था|
भक्ति काल को कितने धाराओं में बांटा गया है ?
भक्तिकाल को रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में विभाजित किया जो निम्न प्रकार से है-
- सगुण काव्यधारा
- निर्गुण काव्यधारा
सगुण काव्यधारा को 2 भागो में विभाजित किया गया है
- रामभक्ति शाखा
- कृष्णभक्ति शाखा
निर्गुण काव्यधारा को भी 2 भागो में विभाजित किया गया है
- ज्ञानमार्गी शाखा या संत काव्यधारा
- प्रेममार्गी शाखा या सूफी काव्यधारा
सगुण रामभक्ति शाखा
इस काल में भगवान श्रीराम जी के मर्यादा शील एवं सौन्दर्य प्रधान सत्य , अवतार की उपासना की गयी है। इस काल में प्रबंध एवं मुक्तक दोनों प्रकार की काव्यों की रचना की गयी। इस काल में प्रमुख रूप से अवधी और ब्रजभाषा का उपयोग हुआ और कई छन्दों में रचनाएँ हुई | इस काल के काव्य में सभी स्सों का समावेश हुआ, किन्तु शांत और शृंगार प्रधान रस है इस शाखा के प्रमुख कवि व उनकी रचनाएँ निम्न है-
सगुण भक्ति धारा की रामभक्ति शाखा के कवि और उनकी रचनाएँ
- गोस्वामी तुलसीदास – रामचरितमानस, विनयपत्रिका, कवितावली, गीतावली
- नाभादास – भक्तमाल
- स्वामी अग्रदास – रामध्यान मंजरी
- रघुराज सिंह – राम स्वयंवर
सगुण कृष्णभक्ति शाखा
इस शाखा में लेखको कवियों ने भगवान कृष्ण की उपासना की है। इस शाखा में केवल मुक्तक काव्यों की रचना हुई| कृष्ण भक्ति के सभी पद ब्रजभाषा की माधुर्य भाव से ओत-प्रोत है। इस शाखा के कवियों ने मुख्यत मुक्त छद में रचनाएँ की है। इस काल में कवि सूरदास ने बात्सल्य रस को चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया। इस शाखा के प्रमुख कवि व उनकी रचनाएँ निम्न हैं –
सगुण भक्ति धारा की कृष्णभक्ति शाखा के कवि और उनकी रचनाएँ
- सूरदास – सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी
- नंददास – पंचाध्यायी
- कृष्णदास – भ्रमर-गीत, प्रेमतत्त्व
- परमानन्ददास – ध्रुवचरित, दानलीला
- चतुर्भुजदास – भक्तिप्रताप, द्वादश-यश
- नरोत्तमदास – सुदामा चरित
- रहीम – दोहावली, सतसई
- मीरा भाई – नरसी का माहरा, गीत गोविन्द की टीका, पद
निर्गुण ज्ञानमार्गी शाखा
भक्ति की इस शाखा में केवल ज्ञान-प्रधान निराकार ब्रह्म की उपासना की प्रधानता है। इसमें प्रायः मुक्तक काव्य रचे गये। दोहा और पद आदि स्फुट छदों का प्रयोग हुआ है। ये कवि अक्सर देश के तमाम हिस्सा में भ्रमण करते रहते थे और आम जन से मिलते जुलते रहते थे इसलिए इनकी भाषा में अनेक भाषाओं का पुट मिलता है जिसे रामचंद्र ने खिचढ़ी एवं सधुक्कड़ी भाषा कहा है। इन रचनाकारों की रचनाओं का प्रमुख रस शांत है – हिंदी साहित्य का इतिहास -hindi-sahitya-ka-itihas
निर्गुण भक्ति धारा ज्ञानमार्गी शाखा के प्रमुख कवि व उनकी रचनाएँ निम्न है-
- कबीरदास – बीजक (साखी सबद , रर्मेनी)
- दादू दयाल – साखी , पद
- रैदास – पद
- गुरु नानक – गुरु ग्रन्थ साहब में महला
निर्गुण प्रेममार्गी शाखा
इस शाखा में प्रेम प्रधान निराकार ब्रह्म की उपासना का प्राधान्य था | इस काल में सूफी कवियों ने आत्मा को प्रियतम मानकर हिन्दू प्रेम कहानियों का वर्णन किया है| हिन्दू-मुस्लिम एकता इस शाखा की प्रमुखता है। इस काल के सभी महाकाव्य प्रेमकथाओं पर आधारित हैं जो शास्त्रीय कसौटी पर खरे उतरते हैं। इस शाखा के प्रमुख कवि व उनकी रचनाएँ निम्न है
निर्गुण भक्ति धारा प्रेममार्गी शाखा के प्रमुख कवि व उनकी रचनाएँ निम्न है-
- मलिक मोहम्मद जायसी – पदमावत, अखरावट, आखरी कलाम
- कुतुबन – मृगावती
- मंझन – मधुमालती
- उसमान – चित्रावली
भक्ति काल की प्रमुख विशेषता क्या है?
भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएँ
- ईश्वर के सगुण तथा निर्गुण रूप की उपासना |
- गुरु की महिमा का गुणगान |
- ईश्वर के नाम की महिमा |
- लोक की भाषाओं-ब्रज एवं अवधी का काव्य में प्रयोग |
- ईश्वर के प्रति समर्पण की भावना |
- दिनता की अभिव्यक्ति |
- बाह्यडम्बरो का विरोध |
- मानवतावादी धर्म की महत्ता
- व्यंग्यात्मक उपालम्भ शैली का प्रयोग
- कविता में स्वान्तः सुखाय की भावना।
उत्तरनध्य काल ( रीतिकाल संवत् 1643-1857 )
हिंदी साहित्य में उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल के नाम से जानते है इसकी समय सीमा सन1843 से 185स्तक ठहरती है रीति शास्त्र के प्रमुख आचार्य वामन ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ काव्यालंकार में रीति को काव्य की आत्मा कहा- रीतिरात्मा काव्यस्य इसे और स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि विशिष्ट पद रचना रीति अर्थात काव्य में यदि विशिष्ट रचना का उपयोग किया गया है, तो यह रीति काव्य है
रीतिकाल का समय कब से कब माना जाता है ?
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसका कार्यकाल सम्वत 1650 से 1900 तक बताया है| लेकिन उससे पहले ही राष्ट्रीय आंदोलन का आरम्भ हो गया था और भारतेन्दु आदि रचनाकारों के लेखन में आधुनिक प्रवृत्तियां दिखने लगी थी इसलिए इस काल को 1857 तक ही मानना जाता है
रीतिकाल को रीति काल क्यों कहा जाता है?
रीतिकाल के नामकरण को लेकर हिंदी साहित्य आलोचकों में बहुत मतभेद रहा है। अपने अध्ययन और समझ के अनुसार विभिन्न विद्वानों ने इसे नये नये नाम से पुकारा, उन्होंने अपने नामकरण के पीछे निहित तथ्यों को प्रामाणिक भी किया जो इस प्रकार है
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल – रीतिकाल
- आचार्य मिश्र बन्धु – अलंकृत काल
- आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र – श्रृंगार काल
- डॅा. रसाल – कला काल
रीतिकाल की रचनाओं को मुख्य रूप से तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है
- रीतिबद्ध काव्य
- रीतिसिद्ध
- रीतिमुक्ता काव्यधारा
रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रमुख कवि घनानंद, बोधा, ठाकुर, आलम, दिव्ज्देव आदि है।
हिंदी साहित्य का आधुनिक काल कब से माना जाता है?
आधुनिक काल (गद्य काल संवत् 1857 से अब तक)
हिंदी साहित्य का आधुनिक भारत के इतिहास के बदलते हुए स्वरूप से प्रभावित था स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीयता की भावना का प्रभाव साहित्य में भी दिखाई देता है । इस समय भारत में औद्योगीकरण का प्रारंभ होने लगा था। आवागमन के साधनों का विकास हुआ अंग्रेजी और पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव बढ़ा और जीवन में बदलाव आने लगा। ईश्वर के साथ-साथ मानव को समान महत्व दिया गया भावना के साथ-साथ विचारों को पर्याप्त अवसर मिला | पध के साथ-साथ गद्य का भी विकास हुआ और छापेखाने के आते ही साहित्य के संसार में एक नयी क्राति हुई।
हिंदी साहित्य का आधुनिक काल अपने पिछले तीनों कालों से सर्वथा भिन्न है। आदिकाल में डिंगल भक्तिकाल में अवधी और रीतिकाल में ब्रज भाषा का बोलबाला रहा वहीं इस काल में आकर खड़ी बोली का वर्चस्व स्थापित हो गया। अब तक के तीनों कालों में जहां पद्य का ही विकास हुआ था वहीं इस युग में गद्य और पद्य समान रूप से व्यवहत होने लगे| प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से भी इस युग में नवीनता का समावेश हुआ जहां में पुराने काल के कवियों का दृष्टिकोण एक सीमित क्षेत्र में बँधा हुआ रहता था वहाँ आधुनिक युग के कवियों ने समाज के व्यवहारिक जीवन का व्यापक चित्रण करना शुरू किया। इसलिए इस युग की कविता का फलक काफी विस्तृत हो गया। भावना अध्यात्मवाद का संदेश ,राजनीतिक चेतना, समाज सुधार की आदि विविध विषय इस काल की कविता के आधार बनते गए हैं। – हिंदी साहित्य का इतिहास -hindi-sahitya-ka-itihas – –
आधुनिक युग की विस्तृत कविता-धारा की रूप रेखा जानने के लिए उसे प्रमुख प्रवृत्तियों के आधार पर छ प्रमुख भागों में बाँटा जा सकता है
- भारतेन्दु युग (सन् 1857 से 1902 )
- द्विवेदी युग (सन् 1902 से 1916)
- छायावादी युग (सन् 1916 से 1936 )
- प्रगतिवादी युग (सन् 1936 से 1943 )
- प्रयोगवादी और नवकाव्य युग ( 1943 से 1990 )
- उत्तर आधुनिक युग (1990 से आज तक)
भारतेन्दु युग का उदय कब हुआ?
भारतेन्दु युग
भारतेंदु हरिश्चंद्र (1855–85) को हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग का प्रतिनिधि माना जाता है। भारतेंदु युग ने हिंदी कविता को रीतिकाल के शृंगारपूर्ण और राज आश्रय के वातावरण से निकाल कर राष्ट्रप्रेम, समाज सुधार आदि की स्वस्थ भावनाओं से ओत-प्रेत कर उसे सामान्य जन से जोड़ दिया उन्होंने कविवचन सुधा, हरिश्चन्द्र मैगजीन और हरिश्चंद्र पत्रिका निकाली। साथ ही अनेक नाटकों की रचना की उनके प्रसिद्ध नाटक है चंद्रावली, भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी | ये नाटक रंगमंच पर भी बहुत लोकप्रिय हुए।
इस काल में कहानियों निबंध, उपन्यास तथा नाटको की रचना हुई। इस काल के लेखकों में राधा चरण गोस्वामी, चौधरी प्रेमघन लाला, बालकृष्ण भट्ट, प्रताप, श्रीनिवास दास नारायण मिश्र, , उपाध्याय बदरीनाथ, बाबू देवकी नंदन खत्री, और किशोरी लाल गोस्वामी आदि उल्लेखनीय है। इनमें से अधिकांश लेखक होने के साथ-साथ पत्रकार भी थे।
लाल श्रीनिवासदास के उपन्यास परीक्षागुरू को हिन्दी का पहला उपन्यास कहा जाता है। कुछ विद्वान श्रद्धाराम फुल्लौरी के उपन्यास भाग्यवती को हिन्दी का पहला उपन्यास मानते हैं बाबू देवकीनंदन खत्री का चंद्रकांता तथा चंद्रकांता संतति आदि इस युग के प्रमुख उपन्यास है ये उपन्यास इतने लोकप्रिय हुए कि इनको पढ़ने के लिये बहुत से अहिंदी भाषियों ने हिंदी सीखी। इस युग की कहानियों में राजा शिवप्रसाद सितार-हिन्द को राजा भोज का सपना महत्त्वपूर्ण है।
द्विवेदी युग
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के नाम पर ही इस युग का नाम द्विवेदी युग रखा गया | सन १९०३ ईस्वी में द्विवेदी जी ने सरस्वती पत्रिका के संपादन का भार संभाला। उन्होंने बड़ी बोली गद्य के स्वरूप को स्थिर किया और पत्रिका के माध्यम से रचनाकारों के एक बढ़ समुदाय को खड़ी बोली में लिखने को प्रेरित किया। इस काल में उपन्यास, कहानी, नाटक निबंध एवं समालोचना का अच्छा विकास हुआ।
इस युग के निबंधकारों में पं महावीर प्रसाद द्विवेदी माधव प्रसाद मिश्र, श्याम सुंदर दास, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, बाल मुकंद गुप्त और अध्यापक पूर्ण सिंह आदि उल्लेखनीय है इनके निबंध गंभीर, ललित एवं विचारात्मक हैं, किशोरीलाल गोस्वामी और बाबू गोपाल राम गहमरी के उपन्यासों में मनोरंजन और घटनाओं की रोचकता है |
द्विवेदी युग से ही कहानी का वास्तविक विकास शुरू हुआ किशोरी लाल गोस्वामी की इंदुमती कहानी को कुछ विद्वान हिंदी की पहली कहानी मानते है |
छायावाद युग
कविता की दृष्टि से इस काल में एक दूसरी पार भी थी जो सीधे सीधे स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी थी। इसमें माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन मरेंद्र शर्मा, रामधारी सिंह दिनकर, आदि के नाम उल्लेखनीय है। – हिंदी साहित्य का इतिहास -hindi-sahitya-ka-itihas
इस युग की प्रमुख कृतियों में जय शंकर प्रसाद की कामायनी और औसू सुमित्रानंदन पन्ना का पल्लव गुंजन और वीणा, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की गीतिका और अनामिका तथा महादेवी वर्मा की यामा दीपशिखा और सध्यगीत आदि कृतियां महत्वपूर्ण है कामायनी को आधुनिक काल का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य कहा जाता है।
छायावादोत्तर काल में हरिवंशराय बच्चन का नाम उल्लेखनीय है छायावादी काव्य में आत्मपरकता प्रकृति के अनेक रूपों का सजीव चित्रण विश्व मानवता के प्रति प्रेम आदि की अभिव्यक्ति हुई है।
प्रगतिवाद
सन 1936 के आसपास से कविता के क्षेत्र में बड़ा परिवर्तन दिखाई पड़ा प्रगतिवाद ने कविता को जीवन के यथार्थ से जोड़ा प्रगतिवादी कवि कार्ल मार्कस की समाजवादी विचारधारा से प्रभावित है। हिंदी भाषा द्वरा मानव मन के सूक्ष्म भावों को प्रकट करने की क्षमता विकसित हुई।
युग की मांग के अनुरूप छायावादी कवि सुमित्रानंदन पत और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने अपनी बाद की रचनाओं में प्रगतिवाद का साथ दिया। नरेंद्र शर्मा और दिनकर ने भी अनेक प्रगतिवादी रचनाएं की प्रगतिवाद के प्रति समर्पित कवियों में केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन शमशेर बहादुर सिंह, रामविलास शर्मा, त्रिलोचन शास्त्री और मुक्तिबोध के नाम उल्लेखनीय है इस धारा में समाज के शोषित वर्ग मजदूर और किसानों के प्रति सहानुभूति व्यक्त की गयी, धार्मिक रूड़ियों और सामाजिक विषमता पर चोट की गयी और हिंदी कविता एक बार फिर खेतों और खलिहानों से जुड़ी, लेकिन एक नये अंदाज में |
प्रयोगवाद
प्रगतिवाद के समानांतर प्रयोगवाद की धारा भी प्रवाहित हुई। अज्ञेय को इस धारा का प्रवर्तक स्वीकार किया गया। सन 1943 में अज्ञेय ने तार सप्तक का प्रकाशन किया। इसके सात कवियों में प्रगतिवादी कवि अधिक थे। रामविलास शर्मा, प्रभाकर माचवे नेमिचंद जैन गजानन माधव मुक्तिबोध, गिरिजा कुमार माथुर और भारतभूषण अग्रवाल ये सभी कवि प्रगतिवादी है। इन कवियों ने कथ्य और अभिव्यक्ति की दृष्टि से अनेक नए नए प्रयोग किये। अतः तारसप्तक को प्रयोगबाद का आधार ग्रंथ माना गया अज्ञेय द्वारा संपादित प्रतीक में इन कवियों की अनेक रचनाएं प्रकाशित हुई।
नई कविता और समकालीन कविता
सन 1953 ईस्वी में इलाहाबाद से नई कविता पत्रिका का प्रकाशन हुआ। इस पत्रिका में नई कविता को प्रयोगवाद से भिन्न रूप में प्रतिष्ठित किया गया दूसरा सप्तक (1951), तीसरा सप्तक (1959) तथा चौधे सप्तक के कवियों को भी नए कवि कहा गया वस्तुत नई कविता को प्रयोगवाद का ही भिन्न रूप माना जाता है।
व्यक्ति की निजता को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करने वाली धारा जिसमें अज्ञेय, धर्मवीर भारती कुंवर नारायण, श्रीकांत वर्मा, जगदीश गुप्त प्रमुख है तथा प्रगतिशील धारा जिसमें गजानन माधव मुक्तिबोध रामविलास शर्मा, नागार्जुन शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन शास्त्री रघुवीर सहाय केदारनाथ सिंह तथा सुदामा पाठ्य धूमिल आदि उल्लेखनीय है सर्वेश्वर दयाल सक्सेना में इन दोनों धराओं का मेल दिखाई पड़ता है। इन दोनों ही धाराओं में अनुभव को प्रामाणिकता लघुमानव की प्रतिष्ठा तथा बौधिकता का आग्रह आदि प्रमुख प्रवृत्तियां हैं। साधारण में बोलचाल की शब्दावली में असाधारण अर्थ भर देना इनकी भाषा की विशेषता है। – हिंदी साहित्य का इतिहास -hindi-sahitya-ka-itihas
रामचंद्र शुक्ल एवं प्रेमचंद युग
गद्य के विकास में इस युग का विशेष महत्व है। पं. रामचंद्र शुक्ल (1884-1941) ने निकर हिन्दी साहित्य के इतिहास और समालोचना के क्षेत्र में गंभीर लेखन किया। उन्होंने मनोविकारों पर हिंदी में पहली बार निबंध लेखन किया साहित्य समीक्षा से संबंधित निबंधों की भी रचना की उनके निबंधों में भाव और विचार अर्थात् बुद्धि 1 और हृदय दोनों का समन्वय है| हिंदी शब्दसागर की भूमिका के रूप में लिखा गया उनका इतिहास आज भी अपनी सफलता बनाए हुए है। जायसी तुलसीदास और सूरदास पर लिखी गयी उनकी आलोचनाओं ने दोषान्वेषक का मार्गदर्शन भी किया। इस काल के अन्य निबंधकारों में जयशंकर, पदुमलाल प्रसाद जैनेन्द्र कुमार जैन, सियारामशरण गुप्त, पुन्नालाल बख्शी और आदि उल्लेखनीय है।
प्रेमचंद ने कथा साहित्य के क्षेत्र में क्रांति ही कर डाली। अब कथा साहित्य केवल एक मनोरंजन कौतूहल और नीति का विषय ही नहीं रहा बल्कि अब यह सीधे जीवन की समस्याओं से भी जुड़ गया।
अद्यतन काल
इस काल में गद्यकामुखी विकास हुआ हजारी प्रसाद द्विवेदी, जैनन्द्र, अशेष यशपाल, नददुलारे वाजपेयी नगद रामनीपुरी तथा डॉ रामविलास शर्मा आदि ने विचार निबंध की रचना की है। जानी प्रसाद द्विवेदी विद्या मित्र कन्यालाल मिश्र प्रभाकर विवेकी राय और कुबेरनाथ राय ने ललित निबंधों की रचना की है हरिशंकर परसाई शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल रवीन्द्रनाम त्यागी के पी सक्सेना के व्यग्य आ के जीवन की विदूपताओं के उद्घाटन में सफल हुए हैं।
वर्तमान में समय के बदलने के साथ ही विधाओं में भी बदलाव आया है। कहानी, कविता, रिपोताज डायरी यात्रा अन्य विधा अपने कलेवर और रूप में बदल रही है। अनेक रचनाकारों की बहुविध रचनाएं अनेक माध्यमों से प्रकाशित हो रही है और चर्चा में आ रही है। हमारे अपने समय के रचनाकारों में विमल कुमार, विनोद कुमार शुक्ल कात्यायनी जोशी उदय प्रकाश राजय, जितेन्द्र जया जादवानी आदि महत्वपूर्ण है इन रचनाकारों की रचनाएं इंटरनेट पर कविताकोश और गधकोश पर खोजी और पढ़ी जा सकती है।
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