vijay nagar samrajya
विजयनगर साम्राज्य – राजा कृष्णदेवराय – किसी देश की संस्कृति को जानने के लिए उसका इतिहास को समझना बेहद जरुरी है भारत में समय समय पर कई साम्राज्य स्थापित हुऐ, जिनके वक्त में कला और संस्कृति में नए आयाम जुड़ते गाये, वक्त के साथ कई साम्राज्यों ने इतिहास के पन्नो में अपनी जगह बनाई। इन्ही में से एक है विजयनगर के खंडहर जो लगभग 600 साल पुराने गुजरे वक्त के वैभव बया करती है

हम्पी की खोज किसने और कब की?
हम्पी मध्यकालीन हिन्दू साम्राज्य विजयनगर की राजधानी थीं ,इसका प्राचीन नाम हस्तिनावली था। तुंगभद्रा नदी के बीच स्थित यह स्थान अब हम्पी नाम से जाना जाता है हम्पी के की खोज 1800 ई. में कर्नल कॉलिन मैकेजी द्वारा किया गया था। इस स्थान से संबंधित उनकी जानकारियाँ विरूपाक्षं मंदीर तथा पंपादेवी के पूजास्थल के पुरोहितो की स्मृतियों पर आधारित है।
विजयनगर साम्राज्य की स्थापना कब हुई थी
तुगलक वंश के शासक मोहम्मद बिन तुगलक के शासन काल के अंतिम समय में उसकी गलत नीतियों की वजह से पूरे राज्य में अव्यवस्था फैल गई, इसका दक्षिण के राज्यों ने भरपूर फायदा उठाया उन्होंने अपने राज्य को स्वतंत्र घोषित कर दिया, इसी दौरान संगम राजवंश के दो भाई हरिहर और बुक्का ने 1336 ईस्वी में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना किया|
चार राजवंशो का शासन
विजयनगर साम्राज्य पर सन 1336 से लेकर 1565 तक चार राजवंशो ने शासन किया जो निम्न है-
- संगम वंश (1336 से 1485 ई. तक)
- सालुव वंश (1485 से 1505 ई. तक)
- तुलुव वंश (1505 से 1570 ई. तक)
- अरविङु वंश (1570 से 1650 ई. तक)
संगम वंश
हरिहर प्रथम ने अपने भाई बुक्काराय के सहयोग से विजय नगर साम्राज्य की स्थपना की। होयसल वंश के राजा बल्लाल की मृत्यु की बाद इन्होने राज्य को विजयनगर में मिला लिया 1353 ई. में हरिहर की मृतु हो गई।
बुक्का राय
बुक्का राय ने राजा की उपाधि धारण की उसका शासन काल बहमनी साम्राज्य के साथ संघर्ष में बिता। वह साहसिक तथा उदार शासक थे, इनकी मृत्यु 1379 ई. में हुई
हरिहर द्वितीय
बुक्का राय के मृत्यु के बाद उसका पुत्र हरिहर द्वितीय शासक बना जिसने महाराजाधिराज की पदवीं धारण की
इस वंश के अन्य शासक
- (1404 – 1406 ई.) देवराय प्रथम
- (1404 – 1410 ई.) विजयराय
- (1410 – 1419 ई.) देवराय द्वितीय
- (1419 – 1444 ई.) मल्लिकार्जुन
- (1444 – 1465 ई.) तथा विरूपाक्ष द्वितीय (1465 – 1485 ई.) सम्लित थे
वीरूपाक्ष की योग्यता का लाभ उठाकर नरसिंग सलुव ने सालुव वंश की स्थापना की
सालुव वंश
नरसिंह सालुव एक सुयोग्य वीर शासक था। इसने राज्य में शांति की स्थपना की तथा सैन्य शक्ति में वृद्धि की | उसके बाद उसके दोनों पुत्र गद्दी पर बैठे परन्तु दोनों दुर्बल शासक थे। 1505 ई. में सेनापति नरस नायक ने नरसिंह सालुव के पुत्रो को हटाकर राज्य पर अधिकार कर लिया।
तुलुव वंश
1.वीरासिंह तुलवा
1505 ई. में सेनापति नरसनायक तुलवा की मृतु के बाद उसके पुत्र वीर सिंह ने सुलुव वंश के अंतिम शासक की हत्या कर स्वयं गद्दी पर अधिकार कर लिया
2.कृष्णदेवराय तुलुव
कृष्णदेवराय को विजयनगर साम्राज्य का सर्वाधिक महान शासक माना जाता है वह वीर तथा कूटनीतिक थे, इनके शासन काल में साम्राज्य विस्तार के साथ साथ कला एवं साहित्य की उन्नति हुई
3.अच्चुत राय
यह कृष्णदेवराय का सौतेला भाई था इसके शासन काल में आन्तरिक विद्रोह ने फिर से सिर उठाया और साम्राज्य हसोब्ब्मुख हो उठा
राजा कृष्णदेव राय
भारत में हमेशा से ही ऐसे कई महान राजा हुए, जिन्होंने न केवल युद्ध शैली से सबका दिल जीत बल्कि राजभर और अपने पदा से अपनी अलग पहचान बनाई| देश में चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक महान, हर्षवर्धन और राजा भोज जैसे न जाने कितने ही राजा हुए, जिन्होंने इतिहास को न केवल बदल दिया बल्कि उन्होंने अपनी एक अलग छाप छोड़ दी| इसी कड़ी में एक नाम आता है दक्षिण भारत के एक राजा का नाम राजा कृष्णदेव राय ये वो राजा थे जिनकी सोच का कायल अकबर भी था|
राजा कृष्णदेव राय का जन्म कब हुआ था
राजा कृष्णदेव राय का जन्म 17 जनवरी 1471 में कर्नाटक के हम्पी में हुआ था, उनके पिता का नाम तुलुव नरस नायक था

उनके पिता सालुक वंश के दूसरे और अंतिम शासक इम्माडि नर्सिंग के संरक्षक एवं सेनानायक थे। इम्माडि नर्सिंग के बाद उनके पिता ने 1491 में विजयनगर की बागडोर संभाली| पिता के राजा बनते ही कृष्णदेव की किस्मत ही बदल गई| पल भर में उनकी जिंदगी एक सेनानायक के बेटे से राजा के बेटे में बदल गई, हर सुविधाएं उनके पास आ गई, वे आलीशान जिंदगी बिताने लगे हालांकि तभी उनके ऊपर बुरी किस्मत के बादल मंडराने लगी उनके पिता को राज संभाले हुए ज्यादा वक्त नहीं हुआ था, की उनकी मृत्यु हो गई|
नरसिंह राय
राजा की मौत के बाद राज्य बिखरने लगता है, ऐसी स्थिति में कृष्णदेव के बड़े भाई ने गदी संभाली, पिता की मौत के बाद बड़े भाई नरसिंह को राजगद्दी मिली। उन्होंने 1505 से 1509 तक राज्य को संभाल राज्य सम्भालते हुए उनके सामने कई बड़ी समस्याएं आई, एक तरफ जहाँ पूरे राज्य पर आक्रमण हो रहे थे, वहीं दूसरी ओर राज्य में भी विरोध के सुर सुनाई देने लगे| इस वजह से उनका पूरा शासन काल सिर्फ आंतरिक विद्रोह एवं आक्रमणों से लड़ते हुए गुजरा और इस दौरान 40 की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई|
कृष्णदेवराय ने सम्हाली राज्य की बागडोर
बेहद विपरीत हालात में राज्य की बागडोर कृष्णदेव राय ने अपने हाथों में लिया और राजगद्दी पर बैठे। राजगद्दी जो दूर से तो सोने का सिंहासन नजर आ रही थी, पर कृष्णदेव राय के लिए कांटों का ताज पहनने के समान थी। गद्दी पाने के बाद उनके पिता और भाई तो पहले ही मर चूके थे राज्य के अंदर लड़ाई का माहौल चल रहा था, पूरे राज्य में अराजकता फैली हुई थी।
कोई और होता तो शायद इस राजनीति से दूर ही रहता मगर कृष्णदेव राय ने ऐसा नहीं किया| कृष्णदेव राय की किस्मत में कुछ और ही था। राज्य की बागडोर हाथों में लेते ही उन्होंने राज्य में फैले विद्रोह को शांत किया और अपने राज्य की सीमा को मजबूत किया वे बहुत ही शांति और सूझबूझ से अपने फैसले लेते थे, कहते हैं कि वे कभी भी अपना हित नहीं देखते थे वे हमेशा एक बीच का रास्ता निकालते थे ताकि उससे हर किसी का भला हो सके इसी कारण कृष्णदेव को एक महान शासक के तौर पर देखा जाता है।
उन्होंने उस समय अपने राज्य को सँभाला था जब वह पूरी तरह से टूटने की कगार पर था। जो काम असंभव सा लग रहा था उसे उन्होंने पूरा करके दिखा दिया था इसके बाद उन्होंने अपना शासन शुरू किया
राज्य का विस्तार
विजयनगर साम्राज्य का सर्वाधिक विस्तार राजा कृष्णदेवराय के शासन काल में हुआ कृष्णदेवराय के शासन की विशेषता विस्तार और वृद्धिकर्ण था। इसने अपनी बुद्धिमती से आंतरिक विद्रोह दमन करते हुए तुंगभद्रा और कृष्ण नदी के बीच का क्षेत्र(रायचूर दो भाद) हासिल कर लिया (1521) साथ ही इस काल में उड़ीसा के शासक दमन (1514 )तथा बीजापुर के सुल्तान को बुरी तरह पराजित 1520 किया गया राज्य में हमेशा विस्तार होता रहा था। मंदिर के निर्माण तथा महत्वपूर्ण दर्शन , भारतीय मंदिरों के भव्य गोपुरामो को जोड़ने का श्रेय कृष्णदेव को ही जाता है। भावनी माँ के नाम पर विजयनगर के समीप ही नगलपुर्म नामक उपनगर के स्थपना की।
महान योद्धा राजा कृष्णदेवराय
एक अच्छे राजा की हर निशानी कृष्णदेव राय में मौजूद थे। सेना नायक के पुत्र होने की वजह से उन्हें युद्ध की समझ बहुत पहले से ही थी इसी वजह से उन्हें युद्ध में हराना काफी मुश्किल था। माना जाता है कि उन्होंने अपने 21 वर्ष के शासनकाल के दौरान 14 युद्ध लड़े हैं इस दौरान उन्होंने सभी युद्ध जीत हासिल की थी आपको जानकर हैरानी होगी कि बाबर ने अपनी आत्मकथा तुजुके बाबरी में कृष्णदेव राय को भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक तक बता दिया।
विजयनगर साम्राज्य – राजा कृष्णदेवराय – कृष्णदेव राय के शासनकाल में हर कोई उनसे प्रभावित था, फिर चाहे वो दोस्त हो या फिर दुश्मन वे न केवल एक उत्तम योद्धा थे बल्कि एक विद्वान भी थे। उन्होंने तेलुगु के प्रसिद्ध ग्रंथ अमुक्त मालिया और विश्व वृद्धि की रचना की थी। उनकी यह रचना तेलुगू के पाँच महाकाव्यों में से एक है। तेलुगु के अलावा उन्होंने संस्कृत में जामवती कल्याण नाटक को भी लिखा था।
राज्य की शासन व्यवस्था

राय
राज्य के शासन शाक्ति के प्रमुख केंद्र होते थे। जिन्हें राय कहकर सम्बंधित किया जाता था वह संपूर्ण शासन व्यवस्था का केंद्र तथा पूजा कल्याण कारी होता था।
नायक
ये साम्राज्य में शाक्ति का प्रयोग करने वाले सेना प्रमुख होते थे जो किलो पर नियंत्रण रखते थे इन्हें नायक कहते थे।
अमर नायक प्रणाली क्या है
यह विजय नगर साम्राज्य की प्रमुख राजनीति व्यवस्था थी। अमर नायक सैनिक कमांडर थे, जिन्हें राय द्वारा प्रशासन के लिए राज्य क्षेत्र दिए जाते थे इनका कार्य किसानो शिलपकारो तथा व्यापारियों से कर वसूलना था |विजयनगर साम्राज्य – राजा कृष्णदेवराय
अष्ट दिग्गज की सुरूवात
कृष्णदेव राय जानते थे, कि अगर उन्हें अपने राज्य को खुशहाल रखना है तो उन्हें प्रजा तक पहुंचना पड़ेगा इसके लिए भी उन्होंने एक अनूठी पहल शुरू की। उन्होंने अवंतिका जनपद के महान राजा विक्रमादित्य के नवरत्न रखने की परंपरा से प्रभावित होकर अष्ट दिग्गज की स्थापना की ये दिग्गज पूरी तरह से राजा कृष्णदेव के अधीन थे
उनका काम था कि राज्य को सूखी बनाए रखने के लिए राजा को सही सलाह दे। बात दुश्मनों की हो जंग की हो या फिर प्रजा की खुशी की कृष्णदेव के ये अष्टदिग्गज उन्हें हर मसले पर उचित सलाह देते थे। आपको जानकर हैरानी होगी कि बाद में अस्त दिग्गज बदलकर नवरत्न कर दिए गए थे।
तेनालीराम कौन था
इस समिति में बाद में तेनालीराम को भी शामिल कर लिया गया था। उन्हें कृष्णदेव राय के दरबार का सबसे प्रमुख और बुद्धिमान दरबारी माना जाता था।

विजयनगर साम्राज्य – राजा कृष्णदेवराय – उनकी सलाह और बुद्धिमत्ता की वजह से कई बार राज्य को आक्रमणकारियों से भी निजात मिली थी वही दरबार में उनकी मौजूदगी से राज्य में कला और संस्कृति को भी बढ़ावा मिला। ये भी कहा जा सकता है कि तेनालीराम विजयनगर साम्राज्य के चाणक्य थे।
अर्थव्यवस्था
विजयनगर साम्राज्य की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि था। लेकिन साम्राज्य में आतंरिक तथा वैदेशिक व्यापार सम्रध्द था। इस काल में युद्ध प्रभावी अशवसेना पर निर्भर करते थे। अरब तथा रशिया से अच्छी नस्ल के घोड़ो का आयात मुख्य व्यापार था। आरम्भिक चरणों में यहाँ व्यापारियों के स्थानीय समूह जिन्हें कुदिरई चेट्टी अथवा घोड़ो के व्यापारी कहा जाता था।
विजयनगर मसालों वस्त्रो तथा रत्नों के बाजार के लिए जाना जाता था। यहाँ की स्थानीय जनता विदेशी वस्तुओं रात्नो और आभूषणो की मांग करते थे। व्यापार से प्राप्त राजस्व राज्य की समृधि में मह्त्वपूंर्ण योगदान देता था।
जल संपदा
विजयनगर से प्राप्त महत्वपुर्ण भैतिक स्थलों में सबसे प्रमुख है तुन्भद्र नदी द्वारा यंहा निर्मित एक प्रकृतिक जलकुण्ड। यह नदी राज्य के उत्तर – पूर्व दिशा में बहती है। इसके चारो ओर स्थित रमणीय ग्रेनाइट की पहाड़ीयों का अद्रश्य शहर के चारो ओर करधनी बनाता हुआ प्रतीत होता है। इन पहाडियों से कई जलधाराए आकर नंदी में मिलती है।
किलेबंदिया तथा सड़के
साम्राज्य को बाहरी आक्रमणों से बचाने के लिए विजय नगर साम्रज्य के चारो और किलेबंदी किया गया था। इस राज्य की किले बंदी दो प्रकार से की गई थी।
1.बाहरी किलेबंदी
शहर की बाहरी किलेबंदी शहर के चरो ओर बनी पहाडियों को आपस में जोड़ती थी। इसका निर्माण हेतु पत्थरों के टुकड़ो से किया गया था। दिवारो के अंदर का भाग मिटटी और मलवे के मिश्रण से तथा बाहरी भाग आयाताकार तथा वर्गाकार बुर्ज से बना था।विजयनगर साम्राज्य – राजा कृष्णदेवराय
2.आंतरिक केबंदी
दुसरे किलेबंदी नगर के आंतरिक भाग के चारो ओर बनी हुई थी। और तीसरी से शासकिय केंद्र को घेरा गया था। दुर्ग में पवेश के लिए सुरक्षित प्रवेश द्वार थे। जो शहर को मुख्य सड़को से जोड़ते थे। किलेबंदी बस्ती में जाने के लिए बने प्रवेश द्वार पर बनी महराब और साथ हि द्वार पर बने गुबंद तुर्की सुल्तानों द्वारा प्रवातित स्थापाय के चारिव्रिक लक्षण है|
शहरी केंद्र
शहरी केंद्र से सम्बन्धित कम पुरात्विक साक्ष्य मिले है, कुछ स्थानों जिनमे शहर का उत्तर पुव्री कोना साम्मिलित है। परिष्क्र्त में चीनी मिटटी पायी गई है | इस आधार पर यह कहा जाता है की इन स्थानों में अमीर व्यापारी रहते रहे होंगे। यहाँ के मुस्लिम रिहायशी इलाको में कई मकबरे तथा मास्जित भी प्राप्त हुए है| जिनकी स्थापत्यकला हम्पी में मिले मंदिर के मंडपों के स्थापत्य से समानता रखते है |
धार्मिक केंद्र
तुम्भद्र नंदी के किनारों स्थित शहर का उत्तरी चट्टानी भाग धार्मिक केंद्र के रूप में प्रसिद्ध था। यह क्षेत्र कई धार्मिक मान्यताओं से सबंध था। धार्मिक केंद्र में स्थित ये पहड़िया रामायण में वारणित बाली और सुग्रीव् के वानर राज्य था।विजयनगर साम्राज्य – राजा कृष्णदेवराय
अन्य मान्यता के अनुसार इन्ही पाहाडियोपहड़ीयो में स्थानीय मृातदेवी ने विरूपाक्ष जो राज्य के संरक्षक देवता तथा शिव के एक रूप माने जाते है आज भी राज्य के विरूपाक्ष मंदिर में इनका विवाह प्रतिवर्ष आयोजि किया जाता है। यहाँ कई पूर्वकालीन जैन मंदिर भी प्राप्त हुए |
मंदिरों का निर्माण
धार्मिक केंद्र में बदलव चालुक्य चोल तथा होयसाल वंश के राजाओ द्वरा मंदिर निर्माण किया जाता था। मंदिर निर्माण का मुख्य उदेश्य शासको द्वारा अपने आप को ईश्वरम से जोड़ना था, मंदिर शिक्षा के केंद रूप में भी कार्य करते थे।

विजयनगर साम्राज्य – राजा कृष्णदेवराय – शासक एवं अन्य लोग मंदिर में रख रखाव के लिए भूमि या अन्य संपदा दान देते थे क्योकि मंदिरों का संरक्षण शासको के लिए उनकी सत्ता सम्पति तथा निष्ट के लिए समर्पण तथा मान्यता के महत्वपूर्ण मधिय्म थे। इस प्रकार मंदिर धार्मिक , समाजिक , आर्थिक एवं सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित हुए|
मंदिर की विशेषताए
इस काल में स्थपित मंदिरों में स्थ्पत्या कला की नविन विशेषताए दिखाई देते है। मंदिर में बनाई गई इनमे सबसे प्रमुख विशेषता राय गोपुरम अथवा राजकी प्रवेश द्वार थे मंदिरों की अन्य विशेषता यंहा के मंडप तथा लम्बे वाले गलियारे थे जो मंदिर परिसर में देवस्थल के चारो ओर बने होते थे मंदिर की एक अन्य चारित्रिक विशेषता इनकी रथ गलिया है जो गोपुरम से सीधी रेखा में जाते थे इन गलियों के कर्स पथरो के टुकड़े से बने थे जिनकी दोनों ओर बनाये गए मंडपों में व्यपारी दुकने लगते थे इस काल के दो प्रमुख मंदिरों से हमें इस काल की स्थापत्य कला की अधिक जानकारी प्राप्त होती है
विरुपाक्ष मंदिर
विरुपाक्ष मंदिर का निर्माण 15 वी शतब्दी में किया गया था। कई शताब्दियों पहले साम्राज्य की स्थापना के बाद इस मंदिर को और अधिक विकसित किया गया। यह मंदिर भगवान् शिव को समर्पित है। इस मंदिर को पंपापति मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। मुख्य मंदिर के सामने मंडप का निर्माण कृष्णदेव राय ने अपनी राज्यअभिषेक के उपलक्ष्य में करवाया था। इस मंडप के अंदर विशाल भगवान् गणेशजी की मूर्ति विराजमान है। पूर्वी गोपुरम का निर्माण राजा कृष्णदेव राय ने 1510 में कराया था। मंदिरो में सभागार संगीत नृत्य और नाटकों के विशेष कार्यक्रम के लिए होता था इनमें देवताओं की मूर्तियां भी कार्यक्रम देखने के लिए रखी जाती थी विजयनगर साम्राज्य – राजा कृष्णदेवराय
विटठल मंदिर
हम्पी का विटठल मंदिर उत्कृष्ट कला और स्थापत्य की बेजोड़ मिशाल है, जिसे देखने दर्शक देश विदेश से खीचे चले आते है। विठ्ठल मंदिर के मुख्य देवता विट्ठल थे जो संसन्यत महाराष्ट्र में पूजे जाने वाले भगवान विष्णु का ही एक रूप थे। विजयनगर साम्राज्य के शासको ने नवीन सांस्कृतिक परंपराओं को आत्मसात करते विष्णु देव की पूजा प्रारंभ की विरुपाक्ष मंदिर की भांति इस मंदिर में भी कई सभागार और रथ के आकार का अनुष्ठान मंदिर भी है
विश्व धरोहर
1836 से अभिलेख्कर्ताओ ने हम्पी के विभिन्न मंदिरों से अभिलेखों का संकलन सुरु किया ,कलन्तर में 1856 ई. से छाया चित्रकारों को यहाँ के भवनों पर उत्कृष्ट चित्रों का शोधकर्ताओं द्वरा अध्यन किया गया। कर्नाटक स्थित यह स्थल यूनेस्को के विश्व धरोहरों में सम्लित है। यंहा 500 से अधिक स्मारक चिन्ह मिले है , जिनमे मंदिर , महल ,तहखाने शाही मंडप ,जलखंडहर आदि प्रमुक है।
विजयनगर साम्राज्य का पतन
1529 में कृष्ण देव की मृत्यु होने के बाद राज्य में तनाव उत्पन्न होने लगा अचुभ्य राज्य 1529-1542 के शासनकाल में आंतरिक विद्रोह उठने लगा और साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया। राज्य के अधिकारियो को विद्रोही नायको तथा सेनापतियो की चुन्तियो का सामना करना पड़ा। 1542 तक केंद्र पर नियंत्रण एक अन्य राजवंश, अरविदु वंश के हाथो में चला गया जो लगभग सत्रवी शतब्दी के अंत तक शासन करते रहे। 1565 ई. में विजय नगर सेना के प्रधानमंत्री राजराय के नित्वेत में सुरक्षित रही|
विजयनगर साम्राज्य के पतन के कारण
पड़ोसी राज्यों में सत्रुता की निति
विजयनगर साम्राज्य सदैव अपने पड़ोसी राज्यों (बहमनी, बीजापुर, उड़ीसा) से संघर्ष करता रहा, जिसके कारण साम्राज्य की स्थिति शक्तिहीन हो गई थी
निरकुंश एवं अयोग्य शासक
कृष्णदेव राय के बाद विजयनगर साम्राज्य के सभी शासक निरंकुश अयोग्य थे, इनकी कमजोरी से आतंरिक संघर्ष किर से बढ़ने लगे जिसके कारण साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया।
उड़ीसा – बीजापुर का आक्रमण
विजयनगर साम्राज्य के आन्तरिक युद्ध का लाभ उठाते हुए उड़ीसा के राजा प्रताप रूद्र जगपति तथा बीजापुर के शासक ने विजय नगर पर आक्रमण कर दिया, और विजयनगर के कुछ भागो पर आधिकार कर लिया |
विजयनगर साम्राज्य का योगदान
विजयनगर साम्राज्य कई वर्षों तक दक्षिण भारत में धर्म संस्कृति साहित्य और कला का मुख्य केंद्र था यहाँ के साम्राज्य शैव धर्मावलंबी थे। किंतु साम्राज्य में अन्य धर्मों को सम्मानजनक स्थान प्राप्त था इस लिए इस काल को हिंदू संस्कृति का पुनर्जागरण काल कहा जाता है। क्योंकि इस काल में अनेक प्रादेशिक भाषाओं की उन्नति हुई। इस काल में माधवाचार्य ने वेदों का भविष्य लिखा
निष्कर्ष
विजयनगर साम्राज्य में प्राप्त विभिन्न भवन साम्राज्य की व्यवस्था और विस्तार की जानकारी देती है किसी शहर की किलेबंदी के अध्ययन से हम उसकी प्रतिरक्षण की आवश्यकता और सामाजिक तैयारी की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। यदि हम विभिन्न भवनों की परस्पर तुलना करें तो ये हमें विचारों के फैलाओ और सांस्कृतिक प्रभाव के बारे में भी बताते है ये हमे अपने निर्माणकर्ता के विचारों को समझने में सहायता करते हैं विजयनगर साम्राज्य – राजा कृष्णदेवराय
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