***vedickal in hindi***
vedickal in hindi – आज से 3.5 से 4 हजार वर्ष पूर्व के काल को वैदिक काल कहते है| वैदिक संस्कृति का विकास अर्यो द्वरा किया गया,आर्य शब्द का अर्थ होता है –श्रेष्ट या सुसंस्कृत!वैदिक साहित्य को विश्व का प्रचीनतम साहित्य कहा जाता है | इस प्रकार के साहित्य हमें और कही देखने को नहीं मिलता, यह साहित्य व्यपक ज्ञान से परिपूर्ण है |
श्रुति परम्परा:-
हमरे वेदों की संख्या चार है (1.ऋग्वेद, 2.यजुर्वेद, 3.सामवेद, 4.अर्थववेद ) जिनमे ऋग्वेद सबसे प्रचीन है | जिनकी भाषा संस्कृत है जिसे देव लिपि (देवो की भाषा ) कहते है |सम्पूर्ण वैदिक साहित्य को श्रुति कहते है| श्रुति परम्परा में गुरु द्वरा शिष्य को मोखिक रूप से वेदमंत्रो की शिक्षा दी जाती है जिसे सुनकर शिष्य सस्वर पाठकर स्मरण करते है,इस तरह यह ज्ञान पीढ़ीदर पीढ़ी हस्तांतरित( एक हाथ से दुसरे हाथ ) होता रहता है |
महाकाव्यो की रचना :-
हमरे देश के दो महाकाव्यों रामायण और महाभारत में वेदिक काल का वर्णनं मिलता है | वाल्मीकि रामयण में कोसल जनपद का वर्णनं मिलता है इसी प्रकार महर्षि वेदव्यास द्वरा रचित महाभारत में कुरुजनपद, पांचाल जनपद, और सुरसेन जनपद का वर्णन मिलता है | ये दोनों महाकव्यभारतीय संस्कृति का आधार है | जिनसे मानव जीवन के सभी क्षेत्र प्रभावित होते है |
वैदिक काल को कितने भागों में बांटा गया है?
वैदिक कल का विभाजन :-
1.ऋग्वैदिक काल या पूर्ववैदिक काल
2.पूर्ववैदिक काल
(1.) ऋग्वैदिक काल या पूर्ववैदिक काल
जिस युग में ऋग्वेद की रचना की गई उस काल को ऋग्वैदिक काल कहते है |ऋग्वैदिक काल का समय 1500 ईशा पूर्व से 1000 तक था
ऋग्वेद :-
ऋग्वेद विश्व का सबसे प्राचीनतम ग्रंथ है | इसके मंत्रो को सूक्त कहा जाता है| सूक्त का अर्थ है- अछि तरह से बोला गया| यह ग्रन्थ 1017 सूक्तो की सहिता है तथा 11 बालखिल्य सूक्तो को मिलाने पर इसमें कुल 1028 सूक्त है |यह साहित्य दस मंडलों में विभक्त है | इन सूक्तियो में देवी देवताओ की स्तुति की गई है | ऋग्वेद के अध्ययन से हमें उस समय के समाजिक, आर्थिक, धार्मिक, एवं राजनितिक व्यवस्थो का विस्तृत जानकारी प्रप्त होता है |
वैदिक काल भौगोलिक क्षेत्र एवं आर्थिक जीवन :-
ऋग्वैदिक काल में लोग सप्तसिंधु प्रदेश में रहते थे| सप्तसिंधु का अर्थ है –सात नदियाँ, जो सिधु नदी और उनकी सहयक नदियों का क्षेत्र हैवर्तमान में पंजाब हरियाणा | वैदिक काल के लोगो का पर्मुख व्यवसाय पशुपालन था| वे खेती भी करते थे लेकिन खेती उनका प्रमुख व्यवसाय नहीं था| इनकी मुख्य पूंजी गाय थी, ये लोग गाय को बहुत पूजनीय मानते थे एवं इसकी पूजा किया करते थे| गायो से दूध, मक्खन, घी आदि प्रप्त करते थे महिलाएँ सूत कत्तती थी और कपड़े भी बुनती थी |
पशुपालन:-
वैदिक काल के लोग का गाय के अल्वा एक और उपयोगी पशु घोड़ा भी रखते थे जिसे वे रथो में बंधा करते थे, इनके अल्वा ये लोग भेड़ – बकरी और कुत्ते भी पलते थे| पशुओ को चारागाह में चराते थे, ये चारागाह इनके अधिकार में होते थे, चारा कम होने पर नई जगह में जाकर बस जाते थे |
व्यपार एवं वाणिज्य:-
ऋग्वैदिक काल में स्वदेशी एवं विदेशी दोनों प्रकार के व्यपार होते थे |अधिक लाभ के लिए विदेशो में व्यपार का वर्णन मिलता है विदेशो से व्यपार करने के लिए व्यपारी समुद्री सहजो का प्रयोग करते थे |
रहन – सहन :-
इस कल में आर्यो का जीवन काल बहुत सीधा – साधा एवं सरल था| पित्ता परिवारका मुखिया होता था, समाज में पुरषों का अधिक महत्व था, वैदिक समाज में महिलाओ को समान प्रप्त था| वे यज्ञ जैसे धार्मिक क्रियाओ में पुरषों के साथ भाग लेती थी| इस समय महिलाए शिक्षित होती थी, कई महिलाओ ने वेदों के सूक्तो की रचना की है | ये लोग लकड़ी और मिट्टी से बने हुए घरो में रहते है| अपने गायो के लिए बड़े बड़े गौशालाएँ बनते थे|
सयुक्त परिवार :-
वैदिक काल में सयुक्त परिवार का प्रचलन था, परिवार के सभी लोग एक ही साथ एक ही घर में रहते थे| ऋग्वैदिक कालीन परिवार पितृ सतात्म्क था,परिवार का सबसे बुजुर्ग पुरुष घर का मुख्या होता था जिसे गृहपति कहते थे, मुखिया का बात पूरा परिवार मानता था|
खान- पान:-
अर्यो के भोजन में दूध, दही, मक्खन, छाछ, घी, गेहूं, जौ, मासआदि प्रमुख रूप से शामिल थे | आर्य लोग सब्जियों का भी प्रयोग करते थे |Wikipeadia
वैदिक काल का सामाजिक जीवन:-
वैदिक काल में समाज का प्रमुख आधार परिवार होता था| एक गाँव या बस्ती में कई परिवार के लोग रहते थे, ये सभी एक दुसरे के रिश्तेदार होते थे| इसी तरह कई गाँव मिल कर जन बनता था | उस समय ऐसे कई जन थे जैसे – पुरुजन, कुरुजन, यदुजन आदि |
ऋग्वैदिक कालीन समाज में जाति-पाति या छुआ-छूत जैसी बुराइयाँ नहीं थी | उन दिनों अर्यो के अलावा कई ऐसे भी ओग थे, जो संस्कृत नहीं बोलते थे| उनका रहन–सहन, आचरण आदि अर्यो से अलग था| इन्हें आर्य लोग दास, दस्यु या पणि कहते थे | अर्यो के साथ कभी कभी इनका युद्ध भी होता था,लेकिन वे एक ही स्थान में रहने के कारण एक दुसरे की बते भी सिखने लगे और उनमे मेल मिलाप भी होने लगा
वैदिक वर्ण व्यवस्था :-
उतरवैदिक काल में समाज चार वर्णों में बटा हुआ था –
- बा्रह्मण वर्ण – जिनका काम यज्ञ करना और वेदों को पढना था
- क्षत्रिय वर्ण – जिनका कम जनपद की रक्षा करना था |
- वैश्य वर्ण – जिनका काम पशुपालन और खेती करना था |
- शुद्र वर्ण – जिनका काम सेवा करना था |
यही आगे चलकर समाज में जाती – व्यवस्था बना |
शासन व्यवस्था :-
ऋग्वैदिक काल में शासन व्यवस्था को चलने के लिए सभी पुरुष मिलकर अपना राजा स्वयम चुनते थे |पुरे जन के मुखिया को राजा कहते थे एवं उसके रिश्तेदार और सहियोगी को राजन्य कहते थे| जिनका मुख्य कम राजा और पुरे जनपद की रक्षा करना था | राजा का काम युद्ध में नेतृत्व करना, यज्ञ करना और लोगो कि समस्याओ का निपटारा करना था |
राजा को सभी महत्वपूर्ण निर्णय सभा के सदस्यों की सलाह से लेना होता था, इस लिए वह अपने जन पर मनमानी नहीं कर सकता था | उस समय राजा का पद वंशानुगत नहीं होता था, अर्थात पिता के बाद पुत्र ही राजा नहीं बन सकता था | इस प्रकार हम कहा सकते है की वैदिक जनों की शासन व्यवस्थागणतान्त्रिक व्यवस्थाओं पर आधरित थी |
युद्ध :-
जन कभी-कभी पशुओं या चरागाहो के लिए एक दुसरे से युद्ध किया करते थे इनकी कोई स्थाई सेना नहीं थी, आवश्यकता पड़ने पर जन के सभी पुरुष युद्ध में शामिल हो जाते थे | राजा युद्ध में इनका नेतृत्व करता था | युद्ध समप्त होने के बाद हारे हुये लोग के पशु, धन-सम्पदा, चरागाहो आदि को विजेता राजा अपने जन में बाट देता था |समय-समय पर जन के लोग अपने राजा को भेट भी देते थे, जैसे- दूध, घी, अनाज, आभूषण गाय आदि देते थे | राजा इसमें से एक हिस्सा स्वयं रखता था और बाकी हिस्सा अपने जन के सभी लोगो में बाँट देता था |
वेदिक कालीन शिक्षा:-
ऋग्वैदिक काल में विद्यार्थियों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरुओ के आश्रमों में भेजे जाते थे | शिक्षा का मुख्य उदेश्य धार्मिक एवं सहित्यिक शिक्षा प्रदान करना था जिससे आर्य संस्कृति का प्रचार हो सके |
मनोंरजन :-
जीवन के प्रति आर्यों का स्वस्थ एवं आशावादी द्रष्टिकोण था | वे जीवन को अधिक से अधिक सुखद तरीके से व्यतीत करना चाहते थे | इनके मनोरंजन के प्रमुख साधन – नृत्य, जुआ,संगीत, शिकार, रथ-दौड़ तथा घूत था | ऋग्वैदिक कालीन लोग संगीत के बहुत प्रेमी थे
देवी-देवता एवं यज्ञ:-
वैदिक काल के लोग अपने देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए समय-समय परयज्ञ करते थे | इनके प्रमुख देवता – इंद्रदेव, अग्निदेव, वरुणदेव, सोम आदि थे | वे अपने देवताओ से जीवन में खुशहाली, सन्तान, गाये, घोड़े, रोगमुक्ति और युद्ध में विजय की प्राथना करते थे |वे यज्ञ में अग्निकुंड के मधिय्म से दूध, दही, घी, जौ आदि देवताओं को समर्पित करते थे |


साथ में उनकी स्तुति में वैदिक सूक्तो का वाचन भी करते थे | वैदिक सूक्तो में देवताओं की स्तुति के अलावा प्रकति, का वर्णन, विश्व की उत्पति, सम्बंधित विचार भी सम्लित है | वैदिक संस्कृति की सबसे बड़ी देन इस प्रकार है –
- संस्कृत भाषा :- संस्कृत भारत की अधिकांश भाषाओ की जननी है |
- वैदिक साहित्य :- ये भारत की सबसे प्राचीन साहित्य है |
- गणतांत्रिक परम्पराएँ :- छोटे – छोटे जनपदों का युग |
(2.) उतर वैदिक काल
जिस कल में यजुर्वेद, सामवेद, और अर्थवेद की रचना हुई उस कालको पूर्ववैदिक या उतरवैदिक काल कहते है |उतरवैदिक काल का समय 1000 ईशा पूर्व से 600 ईशा पूर्व तक था | इस समय वैदिक संस्कृति सिन्धु – सरस्वती नदी क्षेत्रों से आगे बढ़कर गंगा – यमुना नदी के मैदानों तक फैल चूका था | समय के साथ कृषि में उन्ती हुई जिसे उद्योग धंधो का भी विकास हुआ, और राज्यों का भी विकास हुआ, इस काल में अर्यो के आर्थिक, समाजिक, राजनितिक और धार्मिक स्थिति में ऋग्वैदिक काल की तुलना में बहुत अंतर आ गया था |
जनपद का विकास :-
जन के लोग जिस क्षेत्र में निवास करते थे उसे जनपद कहते है जेसे कुरुजनपद, पांचाल जनपद, सुरसेन जनपद आदि |


कृषि का विकास:-
उतरवैदिक काल में कृषि का विकास हुआ , किसान कई प्रकार के अन्न का अधिक मात्रा में उत्पादन करने लगे थे | जेसे –गेहू , चांवल, तिलहन, दाल आदि |
उतर वैदिक काल में जादातर ग्रहपति खेती और पशुपालन करते थे जिन्हें वैश्य कहते थे | इन ग्र्ह्पतियो के पास उनकी सेवा के लिए सेवक भी थे | समय समय पर वैश्य लोग राजा को भेट भी दिया करते थे जिसे राजा और राज्य का खर्च चलता था
भौतिक समृध्दि :-
खेती की उनती से वैदिक कालीन समाज में भौतिक समृध्दि दिखाई देने लगी| नए –नए अभुष्ण , चमड़े, की चीजे, लकड़ी की चीजे बानने वाले कुशल कारीगर होने लगे | एवं लोहे जैसे धातुओ का उपयोग भी बढ़ गया, लोहे को कृष्ण अयस्क या काला धातु कहा जाता था | जिसकी जानकारी हमें वैदिक ग्रंथो से मिलती है |
वेश-भूषा एवं प्रसाधन :-
ऋग्वैदिक काल में अर्यो की वेश-भूषा साधारण थी | आर्य लोग सूती, उनी, व रंग-बिरंगी कपड़े पहनते थे|स्त्री-पुरुष दोनों अभुष्ण पहनते थे |
शक्तिशाली राजतन्त्रओ का उदय:-
इस काल की प्रमुख विशेषता शक्तिशाली राजतन्त्रओ का उदय था, राजतन्त्र उदय का प्रमुख कारण साम्रज्यवाद की भावना का विकास है |
आश्रम व्यवस्था :-
वैदिक काल में मनुष्य का जीवन चार अवस्थाओ में बंटा था जिसे आश्रम व्यवस्था कहते है | जो निम्न है –
- ब्रम्हचर्य आश्रम – इसमें मनुष्य बाल्यअवस्था से25वर्ष की आयु तक गुरु से शिक्षा प्राप्त करता था
- गृहस्थ आश्रम – इसमें मनुष्य विवाह कर अपना परिवार चलता था |
- वानप्रस्थ आश्रम – इसमें मनुष्य परिवार से दूर रहकर चिंतन मनन करता था|
- सन्यास आश्रम – इसमें परिवार का त्यगकर तीर्थ की यात्रा करते जीवन का अंतिम समय व्यतित करता था|
विवाह :-
ऋग्वैदिक समाज में विवाह एक धार्मिक एवं पवित्र कार्य समझा जाता था | विवाह के बिना जीवन अपूर्ण माना जाता था | यज्ञ के समय पति – पत्नी दोनों उपस्थित होना अवश्यक था | लडको एवं लडकियों को अपने लिए जीवन साथी चुन्ने की पूर्ण अनुमति थी | ऋग्वैदिक काल में स्त्रियों का स्थान समाननीय था | पुत्र प्रप्ति के लिए प्रथना और यज्ञ करायाजाता था | पितृ – प्रधान समाज में ऐसा स्वभाविक था, क्योंकि पुत्र ही पिता का दाह संस्कार करता है तथा वाही परिवार की वंश – परम्परा को जीवित रखता है |
न्याय व्यवस्था:-
इस समय न्याय-व्यवस्था का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था तथा उसकी सहयता के लिए अन्य अधिकारी भी होते थे | न्यायधीश को स्थपति कहा जाता था | उतर वैदिक काल में प्रमुख अपराध- चोरी, डकैती, हत्या, धोखाधड़ी आदि थे|
गाँव के छोटे-मोटे झगड़ो का निर्णय ग्राम्यवादीननामक अधिकारी करता था |उतर वैदिक काल में हत्या के दण्डस्वरूप मृत व्यक्ति के परिवार वालो को 100 गाय देने की प्रथा थी | उतर वैदिककालीन अर्यो की न्याय में गहरी निष्ठा थी|
निष्कर्ष :-
आर्य संस्कृति ने इस युग तक अतियाधिक उन्नति कर ली थी , किन्तु उतर वैदिककालीन संसकृति, ऋग्वैदिक संस्कृतिकी तुलना में भोतिक्कता की ओर अधिक विकसित थी | उतर वैदिक काल में सर्वधिक महत्वपूर्ण प्रगति धार्मिक क्षेत्र में हुई थी | सांस्कृतिक दृष्टिकोण से इस युग में भारतीय जीवन एवं विचारधरा ने यह मार्ग अपनाया जिसका सदेव अनुगमन किया गया |
इस धूमिल युग का अंत तत्कालीन राजाओ की बढती हुई शक्ति, इनके अभिमानी महन्तों की अधिक से अधिक अधिकारों के लिए महत्वकांक्षा तथा इसके धार्मिक दृष्टिकोण में तिव्र परिवर्तन, भारतीय संस्कृति के एक महान युग के प्रारम्भ का संकेत करते है | जिसमे उसके समाज, धर्म, साहित्य एवं कला के आदर्श ने धीरे धीरे वर्तमान रूप को धारण कर लिया था |
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